Wednesday, August 22, 2012

इंटरनेट की ताकत का दुरुपयोग

सोशल मीडिया के तमाम मंचों की ताकत आजकल उसकी बड़ी कमजोरी के रूप में देखी जा रही है। असम हिंसा, म्यांमार में मुस्लिम समुदाय के लोगों पर अत्याचार और मुंबई व कई अन्य शहरों में प्रदर्शन के बीच सोशल मीडिया और मोबाइल एसएमएस के जरिए पूर्वोत्तर के लोगों को जिस तरह निशाना बनाया गया वह अपने आप में न केवल बेहद संवेदनशील मामला है, बल्कि चेताने वाला है। पूर्वोत्तर के लोगों को धमकाने के लिए फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब जैसे मंचों का इस्तेमाल सोशल मीडिया आतंकवाद के नए ट्रेंड की तरफ इशारा कर रहा है। सोशल मीडिया से फैलती अफवाहें कोई नई बात नहीं है। बड़ी हस्तियों के निधन की फर्जी खबरें तो लगातार सामने आई हैं। वैंकूवर में फुटबॉल मुकाबले और लंदन में दंगों के दौरान सोशल मीडिया के जरिये अराजक तत्वों द्वारा घिनौना खेल खेलने का मामला सामने आया था। बीते साल मैक्सिको में हुई घटना के बाद गृह सचिव ने ट्विटर टेरेरिज्म का पहली बार सही मायने में जिक्र भी किया था। वहां एक स्कूल में बच्चों का अपहरण होने और बंदूकधारी द्वारा गोलियां चलाए जाने की खबर ट्विटर पर प्रसारित हुई तो लोगों के बीच भगदड़ मच गई। कई माता-पिता ने अपने बच्चों को सुरक्षित देखने के लिए सड़कों पर फर्राटा कार दौड़ाई। इस वजह से कई सड़क दुर्घटनाएं हुईं और कई लोग घायल हो गए। आपातकालीन फोन लाइन जाम हो गई। हालांकि आरोपितों का कहना था कि उन्होंने वही लिखा जो इंटरनेट पर देखा-पढ़ा। सूचनाओं के बिना फिल्टर हुए प्रसारित होने के गुण-दोष के बीच ट्विटर टेरेरिज्म या सोशल मीडिया टेरेरिज्म एक नए किस्म का जुमला था, लेकिन अब आशंका सही साबित होती दिख रही है। असामाजिक तत्व बाकायदा रणनीतिक तरीके से सोशल मीडिया का इस्तेमाल भय-दशहत और आतंकवाद फैलाने के लिए कर रहे हैं। असम हिंसा के साये में पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ साइबर अभियान इसी का नतीजा दिखता है। भारत में पहली बार सोशल मीडिया की ताकत नकारात्मक रूप में इस तरह सामने आई है और इस लिहाज से सोशल मीडिया के दुरुपयोग से जुड़े सवालों और इस समस्या से निपटने के समाधानों पर बहस जरूरी है। कानून की बात करें तो आइटी एक्ट 2008 में हुए संशोधन के मुताबिक सेक्शन 66-ए में प्रावधान है कि सोशल मीडिया के तहत सामाजिक माहौल को बिगाड़ने वाली अफवाहें फैलाने वाले के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। जुर्म साबित होने पर तीन साल की सजा भी हो सकती है, लेकिन क्या ऐसे लोगों को पकड़ना आसान है? सोशल मीडिया आतंकवाद के मद्देनजर इस समस्या को देखें तो सोशल मीडिया आतंकवादी तो इस तरह की अफवाहों को रणनीतिक तरीके से पैदा करेंगे, जबकि नादानी या अज्ञानता की वजह फैलाने में सहयोग आम लोग ही देंगे। सोशल मीडिया की ताकत की तरह उसका भयंकर दुरुपयोग संभव है और इस दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकारी स्तर पर भी रणनीतिक तैयारी जरूरी है। अलबत्ता सोशल मीडिया पर प्रतिबंध की बात न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि अधूरी समझ का नतीजा है। सवाल है कि क्या फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब आदि सोशल मीडिया के मंचों पर पाबंदी लगा देने से भारत में अफवाहों का दौर रुक जाएगा? क्या सैकड़ों महत्वपूर्ण काम, जिनके संचालन में सोशल मीडिया के मंचों की अहम भूमिका है, इससे प्रभावित नहीं होंगे? क्या इससे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि प्रभावित नहीं होगी? क्या यह सवाल नहीं उठेगा कि सूचना तकनीक के क्षेत्र में अग्रणी भारत के पास अफवाहों को रोकने के लिए सोशल मीडिया पर पाबंदी के सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं है? फिर कई तकनीकी सवाल अलग हैं। सही मायने में पुलिस का एक विभाग इस बात के लिए आने वाले दिनों में तैयार रहना चाहिए कि वह सोशल मीडिया पर फैलती अफवाहों से फौरन निपटे। सोशल मीडिया का सटीक इस्तेमाल अब पुलिस व दूसरी सरकारी एजेंसियों को सीखना होगा। सिर्फ अफवाहें ही नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर लिखे-कहे जा रहे उन शब्दों पर लगातार निगरानी की जरूरत है जो देश की अखंडता को तार तार कर सकती हैं। लोगों के हाथ में इंटरनेट और सोशल मीडिया के रूप में अपार ताकत दी गई है, लेकिन इस ताकत को संचालित करने के लिए जरूरी ट्रेनिंग नहीं दी गई। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर सबसे अधिक सक्रिय किशोर और युवा हैं। सोशल मीडिया पर अफवाह जंगल में आग की तरह फैलती है। भारत में अभी सोशल मीडिया पर सक्रिय उपभोक्ताओं की संख्या सात-आठ करोड़ के करीब है और अभी ही हम इसकी नकारात्मक ताकत के आगे जूझते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में अगर यह आंकड़ा पचास करोड़ के आसपास हुआ तो इस तरह की अफवाहों से होने वाले नुकसान का हम आकलन भी नहीं कर सकते। असम की आग को फैलाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट को जिम्मेदार कहना ठीक नहीं है। सोशल मीडिया के मंच सिर्फ माध्यम भर हैं। महत्वपूर्ण बात इनके जरिए संदेश भेजने वालों की नीयत का है। सवाल देश की साइबर सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाले तकनीकी टीम के कौशल का है। असम संकट के दौर में सोशल मीडिया के जरिए हुए गड़बड़झाले के गहरे निहितार्थ हैं, जिन्हें अब कायदे से समझ लेना चाहिए।

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